रायपुर :- दुनिया में एक कहावत है कि कर्म ही पूजा होता है लेकिन, कभी कर्म ही पूजा मानने वाले देश में वोटों की राजनीति के चलते चुनावी वादों के रूप में मुफ्त में खाद्य सामग्री से लेकर दूसरी वस्तुएं बांटने का जो दौर चला है, ये साफ इशारा करता है कि इस देश का लोकतंत्र फ्री के लॉलीपॉप में अपना फंस गया है। लोकलुभावन मुफ्त की योजनाओं से लोकतंत्र भी कमजोर होता है और अर्थतंत्र भी गड़बड़ा जाता है। इसके बहुत से नुकसानों में से सबसे अहम यह होता है कि मुफ्तखोरी की आदत के चलते ही लोग आलसी होने लगे हैं। आज फसल काटने के समय मजदूर नहीं मिलता। दरअसल, इसकी व्यापक स्तर पर शुरुआत होती है मनरेगा से। यह योजना जिस उद्देश्य के लिए बनी थी, वो मकसद भले ही अच्छा था लेकिन इसकी परिणिति मुफ्तखोरी पर आकर टिक गई है। इसके बाद राजनीतिक पार्टियों ने सत्ता के लिए मुफ्त की योजनाओं को अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया। विभिन्न राज्यों में किसानों की कर्ज माफी से शुरू हुआ ये सिलसिला अब मुफ्त उपहारों में तब्दील हो चुका है।
बता दें कि, लोकलुभावन मुफ्त की योजनाओं से लोकतंत्र भी कमजोर होता है और अर्थतंत्र भी गड़बड़ा जाता है। गौरतलब हो कि छत्तीसगढ़ पर लगभग 89 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है। वहीं हर साल लगभग 6 हजार करोड़ रुपये का ब्याज चुकाना पड़ता है। चुनावी वादे पूरे किए गए तो हर साल 40 हजार करोड़ का बोझ बढ़ेगा।बात दें कि चुनाव के वक्त राजनीतिक दल बड़े-बड़े वादे पूरा करने से बाज नहीं आते। कर्जमाफी और मुफ्त की योजनाएं जनता को रिझाने का एक बड़ा तरीका बन रही हैं। हालांकि राज्य के की कमाई में ज्यादा वृद्धि दिखाई नहीं देती। ऐसे में राज्य कर्ज तले दबते चले जा रहा है।
फिलहाल, छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो चुनाव से पहले भाजपा और कांग्रेस दोनों ने बड़े-बड़े वादे किए हैं। कांग्रेस ने कर्जमाफी, महिलाओं को हर साल 15 हजार की मदद, गैस सिलिंडर पर सब्सिडी, भूमिहीन मजदूरों को 10 हजार रुपये, पराली और तेंदू पत्ते की खरीद, ओपीएस जैसे तमामल लोकलुभावन वादे किए हैं। वहीं बात करें कर्ज की तो राज्य पर कुल 89 हजार करोड़ रुपये बकाया है। आंकड़ों के मुताबिक राज्य को हर साल करीब 6 हजार करोड़ रुपये का ब्याज ही चुकाना पड़ता है। अगर ये योजनाएं लागू हुईं तो राज्य का कर्ज और तेजी से बढ़ेगा।
साल में 40 हजार करोड़ का बढ़ जाएगा बोझ
अगर कांग्रेस अपने सभी वादे पूरा करती है तो कम से कम साल का 40 हजार करोड़ रुपये खर्च होगा। बता दें कि छत्तीसगढ़ का सालाना बजट करीब 1 लाख करोड़ का होता है। इस हिसाब से बजट में 40 फीसदी का इजाफा हो जाएगा। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक कांग्रेस के वादों के बारे में जब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हमारा जीएसडीपी पर कर्ज का रेशिया 16 फीसदी से नीचे ही है जो कि 25 फीसदी के बेंचमार्क से मक है। ऐसे में हम कर्ज पर ब्याज अदा करने में सक्षम हैं।
पुरानी पेंशन स्कीम और कर्जमाफी बढ़ाएगी बड़ा बोझ
बता दें कि, कांग्रेस सरकार ने वापसी पर पुरानी पेंशन योजना लागू करने का वादा किया है। हालांक योजना से राज्य पर भारी बोझ पड़ने वाला है। इसमें रह साल करीब 22 हजार करोड़ रुपये खर्च होगा। वहीं कांग्रेस सरकार का कहना है कि अगले 50 साल इससे कोई समस्या नहीं होने वाली है। 2070 के बाद ही इससे बोझ पड़ेगा। किसानों की कर्जमाफी भी कांग्रेस के वादों मे शामिल रहती है। 2019 में 19 लाख किसानों का कर्ज माफ करने में 9500 करोड़ रुपेय का खर्च आया था। वहीं अब रजिस्टर्ड किसानों की संख्या भी काफी बढ़ गई है। अगर 3.55 लाख भूमिहीन मजदूरों को हर साल 10 हजार करोड़ रुपये दिया जाएगा तो इसमें 355 करोड़ रुपये प्रति साल का खर्च आएगा।
वहीं, स्वयं सहायता समूह की महिलाओं का कर्जमाफ किया जाएगा तो 250 करोड़ रुपये लगेंगे। इसके अलावा अन्य कर्जमाफी में भी 726 करोड़ रुपये का बोझ पड़ सकता है. चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने कहा था कि पहली कैबिने बैठक के दौरान ही किसानों का कर्ज माफ कर दिया जाएगा। उन्होंने कहा था कि राजीव गांधी न्याय योजना के तहत किसानों पर 23 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। पराली के लिए भी किसानों को अच्ची कीमते मिलेंगी। कांग्रेस का वादा है किसानों से 20 क्लिंटल तक पराली की खरीद एमएसपी पर की जाएगी। इस साल की बात करें तो पराली खरीद में 8700 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं।
फिलहाल वहीं, महिलाओं को हर साल 15 हजार रुपये देने में 15385 करोड़ रुपये हर साल खर्च होने का अनुमान है। इसके अलावा भी कांग्रेस ने कई वादे किए हैं। इसमें 200 यूनिट तक फ्री बिजली, किसानों को फ्री बिजली, केजी से पीजी तक फ्री एजुकेश, तेंदू पत्ते पर बोनस आदि शामिल हैं। छत्तीसगढ़ में 12.94 लाख परिवार तेंदू पत्ते इकट्ठा करते हैं। इस हिसाब से इपर 517 करोड़ रुपये हर साल खर्च होंगे। वहीं बोनस के भी 776 करोड़ रुपये देने होंगे। इसके अलावा गरीबों के मुफ्त इलाज पर भी बड़ी रकम खर्च होगी।
मुफ्त की योजनाएं देश के विकास में बाधक…
फिलहाल, वर्तमान चुनाव में सरकार जनता को लुभाने के लिए नई-नई योजनाएं लागू कर चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया है कि गरीब लोगों को 5 वर्ष के लिए 5 किलो मुफ्त अनाज दिया जाएगा। इससे पहले राज्य सरकारें मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त यात्रा आदि कई योजनाएं लागू कर चुकी हैं। यहां तक कि राज्य सरकारों द्वारा युवाओं को बेरोजगारी भत्ता भी दिया जाता है जो युवाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से पंगु बना देता है। प्रश्न यह है कि इन योजनाओं के लिए सरकार के पास धन कहां से आएगा। दुनिया में कई देश मुफ्तखोरी और सरकारी कर्ज बढऩे के कारण डूब चुके हैं। वेनेजुएला और श्रीलंका इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार सबसे ज्यादा मुफ्त योजनाएं पंजाब, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु राज्यों में लागू हैं। मुफ्त की ये योजनाएं देश के विकास में बाधक हैं।
देश को चाहिए मुफ्तखोरी से मुक्ति
फिलहाल, तमाम देशों में इस समय जनता को मुफ्त सुविधाएं बांटकर वोट हासिल करने का सिलसिला जोर पकड़ रहा है। इंग्लैंड के पिछले चुनाव में मुफ्त ब्राडबैंड, बस यात्रा एवं कार पार्किंग की घोषणा की गई। हम भी पीछे नहीं। कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश में मुफ्त लैपटाप, तमिलनाडु के हालिया चुनावों में किचन ग्राइंडर एवं साइकिल, दिल्ली में मुफ्त बिजली एवं पानी और केंद्र सरकार द्वारा गैस कनेक्शन दिए गए हैं। इनसे जनहित तो होता है, मगर कहावत है कि किसी को ‘मछली बांटने के स्थान पर यदि उसे मछली पकड़ना सिखाएं तो वह अधिक लाभप्रद होता है।’ विचारणीय है कि ऐसे मुफ्त वितरण से क्या वास्तव में जनहित होता है? चुनाव पूर्व ऐसी घोषणाएं निश्चित रूप से अनैतिक हैं, क्योंकि इनमें सार्वजनिक धन का उपयोग वोट मांगने के लिए किया जाता है। जैसा कि कांग्रेस ने किसानों की ऋण माफी एवं मनरेगा जैसी योजनाओं से जीत हासिल की थी। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव पूर्व ऐसी बंदरबांट पर रोक लगाने की पहल की थी।
सरकारी सेवाएं तीन प्रकार की होती हैं
फिलहाल, बड़ा सवाल यही है कि क्या चुनाव के बाद भी ऐसा वितरण सही है? भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद की प्रोफेसर रितिका खेड़ा के अनुसार सरकारी सेवाएं तीन प्रकार की होती है। पहली श्रेणी में सार्वजनिक सेवाएं होती हैं। जैसे रेल, हाईवे अथवा कोविड के बारे में जानकारी जो कि केवल सरकार ही उपलब्ध करा सकती है। नि:संदेह ये सुविधाएं सरकार द्वारा ही उपलब्ध कराई जानी चाहिए। दूसरे प्रकार की सुविधाएं वे होती हैं जो व्यक्ति स्वयं हासिल कर सकता है, परंतु किसी व्यक्ति को ये सुविधाएं मिलने से समाज का भी हित होता है। जैसे यदि किसी को मास्क मुफ्त दे दिया जाए तो कोविड संक्रमण कम होगा। यद्यपि मास्क व्यक्तिगत सुविधा है, परंतु उसे उत्तम अथवा मेरिट वाली सुविधा कहा जाता है। तीसरे प्रकार की सुविधाओं में लाभ व्यक्ति विशेष को ही होता है। जैसे दिल्ली में एक तय सीमा तक मुफ्त बिजली देना। ऐसे वितरण का सामाजिक सुप्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए सरकार को इससे बचना चाहिए। उसे सीधे देने के स्थान पर जनता को सक्षम बनाना चाहिए कि वह इस सुविधा को स्वयं बाजार से खरीद सके।
मेरिट और व्यक्तिगत सुविधा में भेद
अब, विषय यह रह जाता है कि मेरिट और व्यक्तिगत सुविधा में भेद कैसे किया जाए? इसका स्पष्टीकरण दो योजनाओं की तुलना से हो सकता है। केंद्र सरकार ने किसानों को 6,000 रुपये प्रति वर्ष नकद देने की योजना लागू की है। वहीं दिल्ली सरकार ने मुफ्त बिजली और पानी देने का वादा किया है। दोनों मुफ्त सुविधाएं हैं। अंतर है कि किसान को नकद राशि मिलने से उसका खेती के प्रति रुझान बढ़ता है और देश की खाद्य व्यवस्था सुदृढ़ होती है, जबकि बिजली मुफ्त बांटने से ऐसा लाभ नहीं मिलता। इसलिए किसान को दी जाने वाली नकद मदद को मेरिट सुविधा में गिना जाना चाहिए जबकि मुफ्त बिजली को व्यक्तिगत सुविधा में। इसका यह अर्थ नहीं कि किसान को नकद राशि देना ही सर्वोत्तम है। उत्तम यह होता कि किसान को पराली न जलाने, भूजल के पुनर्भरण, रासायनिक उर्वरक का उपयोग घटाने के लिए सब्सिडी दी जाती। इससे किसान की आय भी बढ़ती और समाज का हित भी होता।
सरकार को कल्याणकारी योजनाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए
फिलहाल, केंद्र सरकार को तमाम कल्याणकारी योजनाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। वर्तमान में केंद्र द्वारा किसान पेंशन के अतिरिक्त मातृत्व वंदना योजना में गर्भवती महिलाओं को नकद राशि दी जा रही है। उन्नत जीवन योजना के अंतर्गत एलईडी बल्ब वितरित किए जा रहे हैं। ग्रामीण कौशल योजना एवं दीनदयाल अंत्योदय कौशल योजना के अंतर्गत लोगों को उपयुक्त क्षमताओं में ट्रेनिंग दी जा रही है। इन योजनाओं को बनाए रखना चाहिए, लेकिन केंद्र द्वारा तमाम मुफ्त सुविधाएं भी दी जा रही हैं। जैसे आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री बीमा सुरक्षा योजना एवं प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना के अंतर्गत बीमा पर सब्सिडी दी जा रही है। अटल पेंशन योजना के अंतर्गत पेंशन प्रदान की जा रही है। जन-धन योजना में बैंक में खाते खुलवाए जा रहे हैं। अंत्योदय अन्न योजना के अंतर्गत गरीबों को लगभग मुफ्त अनाज दिया जा रहा है। इन तमाम योजनाओं का विशेष सामाजिक सुप्रभाव नहीं दिखता। उलटे प्रशासनिक भ्रष्टाचार से रिसाव का जोखिम और पैदा होता है। इन योजनाओं की रकम को लोगों के खाते में सीधे वितरित कर दिया जाए तो बेहतर। इससे न केवल इन योजनाओं में प्रशासनिक व्यय और भ्रष्टाचार की गुंजाइश खत्म हो जाएगी, अपितु लाभार्थी तक वास्तविक लाभ भी पहुंचेगा। दूसरा लाभ यह होगा कि जनता अपने विवेक एवं आवश्यकता के अनुसार उस रकम का उपयोग कर सकेगी।
देश के नागरिक जागरूक
ज्ञात हो कि, आज हमारे देश के नागरिक जागरूक हो गए हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी देखा जाता है कि वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा दिलाने के लिए खर्च करने से गुरेज नहीं करते। अब उस धारणा को तिलांजलि दे देनी चाहिए कि जन आकांक्षाओं की पूर्ति केवल सरकारी तंत्र ही कर सकता है। हमें जनता पर भरोसा कर उसे इन तमाम योजनाओं में उलझाने के बजाय सीधे रकम देनी चाहिए। ऐसे वितरण के विरोध में कहा जाता है कि यदि देश के सभी नागरिकों को यह रकम दी जाएगी तो यह अमीरों को भी मिलेगी, जिसका कोई तुक नहीं। मान लीजिए किसी अमीर को किसान की भांति 6,000 रुपये सालाना नकद दिए गए तो वे उससे अतिरिक्त कर के रूप में वसूल भी किए जा सकते हैं। इससे लाभ यह होगा कि गरीब पर ‘गरीब’ का ठप्पा नहीं लगेगा और नौकरशाही के खेल से देश मुक्त हो जाएगा।
सुविधाएं मुफ्त प्रदान करने से वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था चरमरा गई
फिलहाल,कल्याणकारी खर्चों का दूसरा पक्ष सरकार की वित्तीय क्षमता का है। सरकार को निर्णय करना होता है कि वह सड़क बनाएगी अथवा गरीब को पेंशन देगी। सरकार जब जनता को मुफ्त सुविधाएं देती है तो उसकी हाईवे इत्यादि बनाने की क्षमता कम हो जाती है। वह नई तकनीक में निवेश नहीं कर पाती। इसका आखिरकार देश के आर्थिक विकास पर ही कुप्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप गरीब का ही जीवन दुष्कर हो जाता है। वेनेजुएला इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। तमाम सुविधाएं मुफ्त प्रदान करने से आज उसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। समय आ गया है कि भारत में राजनीतिक दलों को चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी पर विराम लगाना चाहिए। इसके बजाय नई तकनीकों में निवेश किया जाए और नागरिकों को सीधे रकम दी जाए।
दक्षिण के राज्यों से शुरू हुई मुफ्त की प्रलोभनकारी योजनाएं
जानकारी के मुताबिक, दक्षिण के राज्यों में यह प्रवृत्ति सबसे पहले पनपी। साड़ी, प्रेशर कुकर से लेकर टीवी, वॉशिंग मशीन तक मुफ्त बांटी जाने लगी। जयललिता के राज में अम्मा कैंटीन खूब फली—फूली। लेकिन परिणाम यह हुआ कि अर्थव्यवस्था रसातल में जाने लगी। कालांतर में वहां सरकारों ने इस पर आंशिक ही सही अंकुश लगाया लेकिन यह प्रवृत्ति उत्तर के राज्यों में आ गई। मनरेगा के कारण खेती या अन्य कार्य के लिए मजदूर नहीं मिलते हैं।
सुविधा और प्रोत्साहन में अंतर
ज्ञात हो कि, सुविधा और प्रोत्साहन की योजनाएं अलग-अलग होती हैं। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार ने किसानों को 6 हजार रुपये प्रति वर्ष नकद देने की योजना लागू की है। वहीं दिल्ली सरकार ने मुफ्त बिजली और पानी देने का वादा किया। दोनों मुफ्त सुविधाएं हैं। अंतर है कि किसान को नकद राशि मिलने से उसका खेती के प्रति रुझान बढ़ता है और देश की खाद्य व्यवस्था सुदृढ़ होती है, जबकि बिजली मुफ्त बांटने से ऐसा लाभ नहीं मिलता।
मुफ्त की योजनाओं का लॉलीपॉप देने में ‘आप’ है नंबर वन
यूपी चुनाव 2022 में भले ही बीजेपी जीत गई हो। लेकिन आप ने उत्तर प्रदेश में फ्री बिजली का पासा फेंका था। उसने इस बात की अनदेखी की कि यूपी पॉवर कारपोरेशन की वितरण कंपनियां पहले से 90 हजार करोड़ रुपये के घाटे में हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में 80 फीसदी उपभोक्ता बिजली का बिल नहीं दे रहे हैं और वर्तमान सरकार राजनीतिक दबाव में वसूली भी नहीं कर पा रही है।
दिल्ली में भी ‘फ्री’ का प्रलोभन देकर सत्ता में आई थी ‘आप’
बता दें कि, 2015 में दिल्ली में फ्री बिजली और पानी के नाम पर सरकार बनी, तब से इसमें प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। मुफ्त बस यात्रा योजना के बाद दिल्ली में डीटीसी को 1750 करोड़ का नुकसान हुआ। यही नहीं दिल्ली का राजकोषीय घाटा 2 साल में 55 गुना से ज्यादा बढ़ गया।
कहीं वेनेजुएला न बन जाएं हम
फिलहाल,यही हाल रहा तो हमारी हालत भी वेनेजुएला जैसी हो जाएगी। गौरतलब है कि वेनेजुएला हाल के वर्षों में घोर वित्तीय संकट से घिरा हुआ है। रोजमर्रा की जरूरत के लिए वहां मार-काट हो रही है। वहां के वर्तमान हालात के लिए मुफ्तखोरी ही जिम्मेदार है। एक समय था वेनेजुएला सबसे अमीर देशों की श्रेणी में था। पेट्रो उत्पादों के बदौलत देश में आ रही सम्पत्ति को सही इसे इस्तेमाल करने के बजाए वहां के शासकों ने जनता को मुफ्तखोरी की आदत डाल दी। अच्छे समय में वहां की सरकार ने जनता को सब कुछ फ्री दिया। जब दुनिया के सामने वित्तीय संकट आया तब वेनेजुएला के पास विदेशों से व्यापार के लिए पर्याप्त धन नहीं बचा। आज वह देश कंगाल हो चुका है। भारी कर्ज में डूबा हुआ है।
पंजाब में असर कर गया केजरीवाल का फ्री मॉडल
फिलहाल, राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि पंजाब में केजरीवाल के फ्री के मॉडल पर मुहर लगी। पंजाब में आम आदमी पार्टी ने 300 यूनिट मुफ्त बिजली का वादा किया है। फ्री शिक्षा समेत कई तरह के वादे किए हुए हैं, इनमें खासतौर पर अनुसूचित जाति के बच्चों का ध्यान रखा जाएगा। हर महिला को प्रतिमाह एक हजार रुपये देने की घोषणा की गई। दवाइयां और सभी टेस्ट समेत इलाज मुफ्त करने के वादे के साथ ही हर व्यक्ति को हेल्थ कार्ड देने का वादा किया गया। जिसमें उसकी हर जानकरी दर्ज होगी। 16000 मोहल्ला क्लीनिक खोले जाएंगे। हर गांव में मोहल्ला क्लीनिक होगा। सरकारी अस्पतालों को ठीक किया जायगा। बड़े स्तर पर नए अस्पताल खोले जाएंगे और किसी का रोड एक्सीडेंट होने पर पूरा इलाज सरकार करवाएगी।
राज्य सरकारों की फ्री राशन योजना ने भी किया प्रभावित
बता दें कि, केंद्र सरकार ने कोरोना में फ्री राशत वितरण का ऐलान किया था। इस योजना को मार्च 2022 तक पूरे देश में चलाया जा रहा है। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने इस योजना को आगे बढ़ाने का फैसला किया। प्रदेश के लोगों को फ्री राशन योजना का लाभ देने के लिए सरकार 1200.42 करोड़ रुपये का खर्चा हर महीने वहन करेगी। इससे मार्च तक योगी सरकार पर करीब 4801.68 करोड़ रुपये का बोझ आ जाएगा। यही नहीं यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने विद्यार्थियों को फ्री स्मार्टफोन और टैबलेट वितरित किए थे। इससे पहले सपा सरकार ने भी यही किया था। केवल यूपी ही नहीं, एमपी, बिहार, राजस्थान हर राज्यों में मुफ्त की योजनाएं धड़ल्ले से चल रही हैं। यूपी के सीएम योगी ने फ्री राशन योजना की शुरुआत की। वहीं प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना की शुरुआत की। जिसमें सरकार ने देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया।
स्विटजरलैंड जैसे देशों से लेना चाहिए सीख
फिलहाल, जून 2016 में स्विटजरलैंड सरकार ने अपने देश में बेसिक इनकम गारंटी मुद्दे पर जनमत संग्रह करावाया था। इसमें हर वयस्क नागरिक को बिना काम भी करीब डेढ़ लाख रुपये प्रतिमाह देने की पेशकश की गई। परंतु 77 फीसद नागरिकों ने मुफ्तखोरी को ठुकरा दिया। उन्होंने बेरोजगारी भत्ता नहीं रोजगार को चुना। भारत की जनता को भी ये समझना होगा कि खुशहाली मुफ्तखोरी में नहीं आत्मनिर्भर बनने में है।
रिपोर्टर- गजाधर पैंकरा, जशपुर